विजय कुमार: (कवि , आलोचक , निबन्धकार , अनुवादक)
जन्म: 11 नवम्बर, 1948 (मुम्बई)
शिक्षा : एम. ए., (मुंबई विश्वविद्यालय) , पी-एच. डी. (पुणे विद्यापीठ)
प्रकाशित कृतियाँ -
कविता-संग्रह -
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अदृश्य हो जायेंगी सूखी पत्तियाँ (1981),
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चाहे जिस शक्ल से (1995)
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रात पाली (2006)
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मेरी प्रिय कविताएँ (2014)
आलोचनात्मक पुस्तकें -
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साठोत्तरी हिन्दी कविता की परिवर्तित दिशाएँ (1986) ,
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कविता की संगत (1996)
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कवि-आलोचक मलयज के कृतित्व पर साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित मोनोग्राफ़ (2006)
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कविता के पते -ठिकाने (201
वैचारिक पुस्तकें -
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अंधेरे समय में विचार (2006) (बीसवीं सदी के युद्धोत्तर यूरोपीय विचारकों पर पुस्तक)
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खिड़की के पास कवि (2012) (विश्व के 18 प्रमुख कवियोँ पर समीक्षात्मक निबन्ध)
कविताएँ, समीक्षाएँ, लेख, अनुवाद आदि हिन्दी की सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
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‘अँधेरे समय में विचार’ पुस्तक का पंजाबी और उर्दू में अनुवाद।
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‘रात पाली’ कविता–संग्रह का कन्नड में अनुवाद।
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हिन्दी ‘पहल’ के लिए पाकिस्तानी शायर अफ़ज़ाल अहमद, समकालीन अफ़्रीकी साहित्य, जर्मन चिंतक वाल्टर बेन्जामिन तथा फिलीस्तीनी विचारक एडवर्ड सईद पर विशेष अंकों का संयोजन-सम्पादन।
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‘उदभावना’ पत्रिका के बहुचर्चित कविता विशेषांक ‘सदी के अंत में कविता’ (1998) का अतिथि समपादन.
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अनेक अन्य कविताओं / लेखों का अंग्रेज़ी, मराठी, बांग्ला, कन्नड़, मलयालम, पंजाबी, गुजराती और उर्दू आदि भाषाओं में अनुवाद।
सम्मान–पुरस्कार :
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कविता के लिए 'शमशेर सम्मान’, (1996)
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‘कविता की संगत’ पुस्तक पर देवीशंकर अवस्थी सम्मान (1997)
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समग्र लेखन पर प्रियदर्शिनी अकादमी सम्मान (2008)
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समग्र लेखन पर महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का सम्मान (2012)
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आलोचना के लिये डॉ. शिवकुमार मिश्र स्मृति सम्मान (2018)
आजीविका:
प्रारम्भ में नवभारत टाइम्स मुंबई में उप संपादक। बाद में बैंक में हिन्दी अधिकारी।
2005 में आई डी बी आई बैंक के प्रधान कार्यालय मुंबई में राजभाषा विभाग मेँ महाप्रबंधक पद से स्वैच्छिक अवकाश।
स्थायी पता : ए / 302, महावीर रचना, सेक्टर-15, सीबीडी बेलापुर, नवी मुम्बई-४००६१४ मोबाईल : 09820370825 ई-मेल : vijay1948ster@gmail.com
काश, कभी वैसी कविता लिख पाऊँ : विजय कुमार
जो कुछ नहीं लिखते उनसे कोई नहीं पूछता कि आप लिखते क्यों नहीं, लेकिन जो लिखते हैं उनसे ही अक्सर यह सवाल पूछा जाता है कि आप लिखते क्यों हैं? लिखने वालों से यह सवाल अलग-अलग मंशाओं से पूछा जा सकता है? उन्हें किसी कटघरे में खड़ा करने और उनकी खबर लेने की मंशा से भी और उनकी रचनात्मकता में किसी मूलभूत जिज्ञासा के वशीभूत होकर भी। या कई बार यह सवाल कोई सिरफिरा व्यक्ति लेखक से महज इसलिए भी पूछ सकता है कि उसे उन पेड़ों को बचाने की चिंता ज्यादा है, जिनसे लिखने का कागज बनता है। कई बार लिखने वाला भी तमाम तरह के रेडीमेड जवाब अपने पास तैयार रखता है कि लिखते हुए वह कलम से तलवार का काम लेना चाहता है; या समाज में कोई ज़लज़ला लाना चाहता है; या लिखकर अमर हो जाना चाहता है; या तमाम ताकतवर और ऐश्वर्यशाली लोगों से अपने रिश्ते बनाना चाहता है; या दूसरों के मुकाबले खुद को श्रेष्ठ साबित करना चाहता है या फिर लिखकर खूब धन अर्जित कर लेना चाहता है। आचार्य मम्मट ने तो हजारों वर्ष पहले लिखने के अनेक कारण बता ही दिए थे। लेकिन फिर भी यह सवाल जब पूछा जाता है तो बहुधा मुझ जैसे एक अदने से लेखक को चकरा ही देता है कि मैं क्यों लिखता हूँ ?
बीसवीं सदी के मशहूर कवि रिल्के ने एक युवा कवि को सलाह दी थी कि रात की सुनसान घड़ी में अपने आपसे यह सवाल करो कि क्या लिखना तुम्हारे लिए सचमुच जरूरी है? अपनी युवावस्था में मैंने रिल्के को नहीं पढ़ा था। मुझे याद नहीं कि अपने लेखन के शुरुआती दिनों में रात की किसी सुनसान घड़ी में मैंने अपने आपसे यह सवाल किया था या नहीं। हाँ, अपनी किशोरावस्था में बैठे-ठाले कोरे कागजों पर तुकबंदियाँ करते रहने का वह रोमांस, कक्षा में सहपाठियों को वह लिखा हुआ पढ़कर सुनाने की उत्सुकता, किसी पत्रिका में अपना कुछ छपा हुआ देखने पर एक अजीब सी प्रसन्नता, चर्चित साहित्यकारों की चमक-दमक, किस्से और किंबदंतियाँ, विशिष्ट कहलाने का वह मिथक, नए-नए अज्ञात लोगों से परिचय की उत्तेजना - यह सब था मेरे साथ। पर इस चमकदार समय के बाहर निश्चय ही वे तमाम रातें भी मेरे साथ रही ही होंगी जो जीवन जीने के कुछ खास तरीकों और ढांचों को लेकर संशय, उकताहट, विषाद और अकेलेपन को भीतर रचती थीं; जहाँ मैं एक भरे-पूरे घर-परिवार के भीतर जीते हुए भी अक्सर एकाकी-सा रहा था, जिसका संकेत रिल्के ने युवा कवि को लिखे अपने उस पत्र में दिया है। थोड़ी बहुत दुनियावी सफलताओं को हासिल कर लेने के बावजूद निजी जीवन में किसी गहरी असफलता का बोध और वह अमूर्त-सी विकलता बनी ही रहती थी। इस बीच थोड़ा-बहुत जो पढ़ा और कुछ-कुछ जीवन को जाना तो यह समझ में आने लगा कि हर निजी अवसाद और व्यर्थता के बोध का एक व्यापक दायरा होता है। हम एक बड़े समाज के अंग हैं। इसे अपने सबसे निजी लगने वाले संदर्भों में भी विस्मृत नहीं करना चाहिए। और इसे अनुभव करते ही अपने निजी संदर्भों का वह कोहरा एकदम छँट-सा जाता था। सैमुअल बैक़ट का वह कथन हमेशा याद आता था कि कला अपने मूल रूप में तमाम तरह की असफलताओं के प्रति एक वफादारी है।
एक अजीब-सी बेचैनी मन में रहती थी कि यह प्रतिदिन का जीवन हमें दे क्या रहा है ? हमारे चारों और हजारों - लाखों लोगों की अवश लाचारियाँ हैं, तमाम तरह के अभाव, दुख, रोग और क्लेश हैं। जटिल किस्म के मानव सम्बंध हैं, उनके भीतर बसे चीत्कार, आर्तनाद या रुँधे हुए स्वर हैं। कोई भयानक दृश्य, हिला देने वाली परिस्थिति, मार्मिक प्रसंग, स्तब्ध कर देने वाली व्यथा, कोई कोमलता, कोई जिजीविषा - यह सब मुझसे बहुत दूर नहीं, इस दैनंदिन जिंदगी में मेरे बहुत आसपास, मेरी गली, मेरे मोहल्ले, मेरे पड़ोस, मेरे रिश्ते-नाते में ही घटता रहता था। और इस सबसे लिपटा हुआ समय हमेशा थोड़ा-बहुत मेरे भीतर बचा रह जाता था। मैं रोजमर्रा में घटते हुए की इस भयानक गति के खिलाफ कहीं खड़ा होना चाहता था। मैं मन पर पड़ने वाले उसके इंप्रेशनों को भाषा में दोबारा रचना चाहता था। मन में कई बार यह संदेश भी उठता कि कहीं यह सब एक वृथा भावुकता तो नहीं ? पर सवाल यह भी बना रहता कि क्या कामकाजी, सफलताकामी, नाक की सीध में चलते रहने वालों के बीच भावुक होना, थोड़ा-सा रुककर दायें-बायें देख लेना अपराध है? पर सच तो यह है कि संसार की इस लीला को मैं कुछ समझ नहीं पाता था। और इन सब प्रश्नों के सीधे-सपाट उत्तर आज भी नहीं है मेरे पास। मेरे पास केवल कविता की कुछ टूटी-फूटी पंक्तियाँ हैं, कुछ अधकचरे बिम्ब और हजारों बार दोहराये हुए शब्द हैं। मैं इन्हीं में अपने स्वप्न, इच्छाओं, स्मृतियों, हर्ष-शोक, जय और पराजय के संदर्भों को खोलते रहना चाहता हूँ। इन सबमें ही दूसरों के साथ गुँथा हुआ मेरा एक जीवन है।
आकाश, सड़क, पगडंडियाँ, वृक्ष, इमारतें, मनुष्य, जीवधारी, पेड़-पौधे, घर, बाज़ार, नाते-रिश्ते, आवाजें और चुप्पियाँ, समुद्र, टेबल, कुर्सी, खिड़कियाँ, दरवाजे इत्यादि हमेशा मेरे चारों ओर हैं। मेरी कामना यह है कि एक कविता लिखूँ, जिसमें स्थापत्य की सांसारिकता, चित्र की सघनता और संगीत का जादू इन्हें अपने आगोश में ले ले। मेरा अपना जीवन, कर्म, आचरण और व्यक्तित्व इस सब से एकाकार हो जाए। हर बार वैसी एक कविता लिखने की तमन्ना लिए तमाम कविताएँ लिखता चला आया हूँ। भय, हताशा, दुःस्वप्न, खीझ और विरक्तियों को यदि मैंने थोड़ा बहुत भी जाना है तो जीवन-राग की एक अपूर्व मार्मिकता भी चारों ओर से ताक-झाँक करती रहती है... मैं वैसी एक कविता लिखना चाहता हूँ, जो इस सबको दोबारा भाषा में रचे, जो घटते हुए के ब्यौरे दे पर इन ब्यौरों से बँधी न रह जाए। जिसमें इन्हें समेटे हुए कहीं और निकल जाने की आकांक्षा हो। जिसमें मनुष्य की नियति के प्रति विकलता, करुणा, अनुराग और यकीन एक साथ हो। जिसे लिखते हुए मुझे स्वयं पहले कुछ न मालूम हो। शायद कभी वैसी कविता लिख पाऊँ .....
एक बेचैन भारतीय आत्मा
मधु काँकरिया
बात उन दिनों की है जब साहित्यिक संसार में मैं शून्य से बस थोड़ी सी ही ऊपर थी। पर जाने कहाँ से उड़ता हुआ वर्धा से एक निमंत्रण मिला, आज विशेष कुछ भी याद नहीं बस इतना भर कि वह २००९ का साल था और वर्धा का वह पहला कुम्भ मेला था, जिसमें मैं आमंत्रित थी। वर्धा विश्वविद्यालय तब बन ही रहा था और विभूति जी तब वहाँ के पहले वाईस चांसलर बने ही थे। मैंने आमंत्रण का स्वागत किया। एक सत्र में मुझे भी बोलने का आमंत्रण था। मैं बोली भी लेकिन वहीँ एक सीनियर लेखिका के मिथ्या आरोप और अहंकार ने आत्मा में जो सुराख किया कि पूरे दिन मन उखड़ा-उखड़ा रहा, यद्यपि एक दूसरी सीनियर लेखिका जो उस सत्र में अध्यक्ष भी थीं, उनकी सहृदयता के चलते मुझे अपनी सफाई में बोलने का अवसर भी दिया गया और मैंने सप्रमाण अपनी बात रखी भी लेकिन फिर भी कहीं कुछ था, बहुत झीना-झीना, रेशमी, नाजुक-सा जो टूट गया था और मेरी आत्मा में सुराख़ कर गया था।
उसी साँवली उदास शाम 'यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है' की मानसिक वेदना में वर्धा के बाहर के गलियारे में दुखी और बिक्षुब्ध मन लिए घूम रही थी और अदबी दुनिया की इन नाइंसाफियों और टुच्चेपन पर सोच-सोच उबल रही थी कि नजर वहीँ मुदित मन टहलते विजय जी पर पड़ी जैसे रेगिस्तान में कुछ बूँदें दिख गयी हों। मुझे सचमुच किसी से संवाद करने की बेहद जरूरत थी। खास परिचय नहीं था मेरा उनसे और व्यक्तिगत परिचय तो एकदम नहीं था। फिर भी मैं उनकी ओर बढ़ी और आरम्भिक औपचारिकता के बाद हमारा जो संवाद हुआ वो सचमुच अद्भुत था। मेरी उदासी, अवसाद और खिन्नता के सारे पत्ते रह-रह कर झड़ते जा रहे थे। वे बोलते जा रहे थे, काव्य, साहित्य, संस्कृति, राजनीति और जीवन दर्शन की दरिया बहती जा रही थी और मैं शक्ति भर अपनी अंजलि भरती जा रही थी, जिसकी गूँज आज भी सुन सकती हूँ। उस शाम ने सचमुच सरगम रची। दुनिया से अपने रिश्ते और समय से अपने संबंधों के बारे में सोचने को मैं मजबूर हुई और उस प्रथम संवाद का असर मेरे चित्त और चेतना पर यह हुआ कि किसी लालची ब्राह्मण की तरह मैं उस यजमान को आज तक पकड़े रही। जब-जब उनसे संवाद किया मैं कुछ लेकर ही लौटी। वे खुले आसमान थे, जो बिना किसी श्रेष्ठ्ता-ग्रंथि के मेरी बकवास सुनते जा रहे थे और आवश्यकतानुसार उसमें काट-छाँट करते जा रहे थे। वे बोल रहे थे कि सामने उगी छोटी-छोटी पहाड़ियों पर कविताएँ रच रहे थे। संवाद का ऐसा सुख, ऐसा ब्रह्मानंद पहली मर्तबा महसूसा।
आज इतने वर्षों बाद भी वह मुलाकात मुझे किसी दार्शनिक की तरह ठिठककर सोचने को और याद करने को मजबूर करती है कि संवाद के वे कैसे पल थे, जिसने किसी नियामत की तरह मुझे ऐसे मित्र को भेंट कर दिया, जिससे सुबह हो, शाम हो, आँधी हो, तूफ़ान हो, होली हो, दीपावली हो मैं जब कभी किसी शंका, द्वन्द, कोहरा, कुहासा, उलझन में फँस जाती तो बेझिझक विजय जी को फोन घुमा देती हूँ और वे मुझे अपने सभी द्वन्द्वों, कुहासों, दुविधाओं और उलझनों के उस पार ले जाते हैं ।
इतना भर तो मुझे आज भी याद है कि निर्मल वर्मा को तब तक पढ़ा जरूर था मैंने पर उनकी कहानियों को जिस प्रकार विजय जी ने परत-दर-परत खोल कर रखा था, मेरे सामने और जिस प्रकार उनकी व्याख्या की थी कि मैं विस्मित थी, हैरान थी, मुग्ध थी। कहानी की व्याख्या में कहानी के नये-नये अर्थ खुलते गये और कहानी अनायास ही समकाल से सभ्यता के आदिम पायदान तक फैलती गयी। चिंतन, विचार और दर्शन की नयी दुनिया में ले गए मुझे। कहानी पढ़ना एक बात है और उसे इस प्रकार समय, इतिहास, देश, चेतना, सभ्यता, संस्कृति और मनुष्य की आदिम अंदरूनी दुनिया से जोड़ कर देखना हरेक के बस की बात नहीं। पहली बार यह समझ भी बनी कि निर्मल वर्मा को सिर्फ हिंदुत्ववादी निगाहों से देखना उन्हें अधूरा पकड़ना है, ठीक उसी प्रकार जैसे कई लोग अमृता प्रीतम को सिर्फ प्रेम कथा लिखने वाली दीवानी कथाकार में रिड्यूस कर देते हैं और उनकी विभाजन संबंधी रचनाओं और मर्दवादी समाज की विसंगतियों और उनकी राजनैतिक सोच पर गोबर पोत देते हैं। अपनी तरह मुझे भी एक बेचैन आत्मा लगे वे जहाँ हर वक़्त विचारों की अलख जलती रहती थी। देश, समाज, साहित्य, विश्व साहित्य, राजनीति, सत्ता की क्रूरता, जन-विरोधी नीतियाँ, बाज़ार, पूँजी, संस्कृति और नैतिकता, मुनाफ़े की संस्कृति.... विषय कोई भी हो, हर जगह पैठ है उनकी। इसीलिए सामाजिक विसंगतियाँ और उससे उपजे आंतरिक दवाब बेचैन किये रहते हैं उनको। तभी तो व्यवसायी परिवार में जन्म लेकर भी बाप-दादाओं के लाखों के पुश्तैनी व्यवसाय छोड़कर कलम, कागज़ और दावात की दुनिया में शामिल हुए। तीन भाइयों और चार बहनों का भरा पूरा परिवार लेकिन परिवार की आकांक्षाओं के विरुद्ध जाकर अपनी सहपाठी से प्रेम विवाह किया। संवेदना और सरोकारों के हमसफर बने। उनकी बेकाबू बेचैनियाँ, उनकी संवेदना, ज्ञान और अनुभूतियाँ, उनकी कविताओं और आलेखों में व्यक्त होते रहते हैं। धरती की ध्वनियों और हिन्दुस्तान की सच्ची कहानियों को पकड़ा है उन्होंने अपनी रचनाओं में, चाहे वे वैचारिक आलेख हों, कविताएँ हों और हों आलोचनाएँ, समय जहाँ साँस लेता है, जन जीवन जहाँ धड़कता रहता है।
जाने कितने सेमिनारों में मैंने उनके भरोसे शिरकत की। मैं हिंदी से नहीं हूँ, इस कारण एकेडेमिक टाइप विषयों पर मैं बोलने से गुरेज करती, लेकिन विजय जी थे तो मेरे लिए मुमकिन था कि मैं उनमें शिरकत करूँ। हाल ही में मुझे भाषा के सामाजिक परिप्रेक्ष्य पर बोलना था, दवाब में मैंने हाँ तो भर लिया पर हल्दी की डेढ़ गांठ से दुकानदार बनने के अपने हौसले पर खुद ही मात खा गयी। ऐसे में विजय जी सचमुच कवच-कुण्डल साबित हुए। कई बार प्रखर आलोचक रवि भूषण जी ने भी ऐसे संगीन हालातों में मेरी रक्षा की।
तथ्य कैसे सत्य में रूपांतरित होता है? बाल गंगाधर तिलक क्या सचमुच ब्राह्मणवादी विचारों के पोषक थे? रामविलास शर्मा क्या सचमुच स्त्री विरोधी थे? गाँधी जी छुआछूत का विरोध करते थे पर वर्ण व्यवस्था का विरोध क्यों नहीं किया उन्होंने? क्यों वे मजदूरों से कहते थे कि पूँजीवाद से नहीं अपने आप से लड़ो? मेरी हजारों-हजार शंकाओं का समाधान वे बड़े धीरज से करते थे और जब धारा प्रवाह बोलते तो लगता महासागर में लहरें उठ रही हैं और आँखें मूँदे आत्मसात करने की असफल कोशिश में मैं सिर्फ डूब-उतरा रही हूँ। कई बार मुझे वे समझाते कि चीजों को उनकी जटिलता में समग्रता में देखिये, विशाल-बीहड़ जंगल फैला है। आप सिर्फ किसी एक पेड़ पर फोकस मत कीजिये। सरलीकरण से निकलिए।
आजतक गाँठ में बाँध कर रखी है मैंने उनकी सीख को।
‘नवभारत टाइम्स’ में हर पखवारे निकलता था उनका आलेख, जिसका सभी बेसब्री के साथ इन्तजार करते थे। भाषा के सोलह श्रृंगारों में लिपटे उन आलेखों में वे अपने समय के मात्र द्रष्टा भर नहीं रहते वरन उसे आत्मसात करते हुए खुद ही समय बन जाते है। मुंबई और मुंबई- वासियों के जीवन और जिंदगी का शायद ही कोई ऐसा कोना हो जिस पर उन्होंने टॉर्च न फेंकी हो। मुंबई की नामी-गिरामी शख्सियत, मुंबई की बारिश, पुरानी मुंबई, नयी बनती मुंबई, मंटो का मुंबई, फिल्मकारों का बेचैन संसार, चौराहों, सडकों, पुलों, दीवारों पर बिखरी कला से लेकर मुंबई की तलछट की अँधेरी दुनिया, यांत्रिक कार्य कुशलता, दैनिक मजदूर, देहाड़ी वालों, डिब्बावालों, सड़क पर सोने वालों, फेरीवालों, खोमचेवालों, कैफे वालों, बाइयों, मुंबई की मशहूर इमारतों, पारसी थियेटर, पुस्तकालयों, एसिएटिक लाइब्रेरी, ब्रिटिश लाइब्रेरी, मुंबई के पुराने बाज़ार-भिंडी बाजार का संगीत घराना, एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी धारावी के वाशिंदों, गायब होती मिलें, चिमनियों की जगह सर उठाते कॉरपोरेट ऑफिस, आम गली के नुक्कड़ और चौराहों तक ... सब उनके आलेखों में धड़कते और साँस लेते दिखाई देते हैं। औपनिवेशिक शहर से विकसित होते शहर का पूरा इतिहास और सभ्यता झाँकती थी उन आलेखों से। मछुआरों के सात टापू कैसे एक शहर में बदले? कैसे समुद्र के किनारे के टापुओं को जोड़ा गया। निगाहें सिर्फ साहित्य और समाज पर ही नहीं वरन हमारे समय के सांस्कृतिक और राजनैतिक विद्रूप पर भी भरपूर रहीं।
फिर आधुनिकता के प्रवेश द्वार पर खड़े इस शहर में कैसे देशी पूँजीपतियों के हाथों सत्ता आयी, कैसे यहाँ की कॉटन मीलों का सफाया हुआ, श्रम-संस्कृति की जगह माल-कल्चर की नींव पड़ी। भारतीय पूँजीपतियों का उदय मुंबई में हुआ और मुंबई धीरे-धीरे कृषि सभ्यता से औद्योगिक सभ्यता में बदलता गया। किसान मजदूर बनता गया, मुंबई में आता गया और यहाँ की चालों में समाता गया....सबका लेखा-जोखा मिल जाएगा आपको इन आलेखों में। मुंबई में भी कई मुंबई। एक चमकता झिलमिलाता मुंबई तो एक धुआँता, भीड़ भरा, थका, हाँफता मुंबई जहाँ अभी तक बिजली नहीं आयी थी। कहीं-कहीं बिजली के खम्भे थे तो भी दिन में आठ-आठ घंटों तक गायब रहती बिजली। मुंबई का सांस्कृतिक इतिहास - पहला प्रिंटिंग प्रेस मुंबई में खुला, पहला समाचार पत्र मुंबई से निकला। प्रस्तुत है आपकी खिदमत में ‘रहगुजर’ श्रृंखला का विजय जी का एक श्रव्य-दृश्य:
एक शहर जो खो गया :
गुरुदत्त द्वारा निर्देशित पुरानी फिल्म ‘सी.आई.डी.’ को पिछले दिनों मुझे दोबारा देखने का अवसर मिला। मुझे सहसा यह एहसास हुआ कि उस फिल्म के एक गाने ‘ये है बम्बई मेरी जान’ में जॉनी वाकर जिस 1955 की बम्बई को दिखा रहा है, वह मैं बहुत पहले खो चुकी हूँ। न चर्चगेट स्टेशन की वह छोटी सी सादा इमारत रही, न चौपाटी वैसा रहा, न फ्लोरा फाउंटेन का चौराहा, न पायधुनी, न वर्ली सी फेस और न मैरिन ड्राइव का वह अंतिम छोर वैसा रह गया। और वे चालीस के दशक की ब्यूक और ऑस्टिन मॉडेल की बडी-बडी टैक्सियाँ नहीं रहीं, ट्रामें खत्म हो गयीं, नीली वर्दी और हाफ पैंट पहने हुए वे पुलिस हवलदार हमारी यादों से बाहर निकल गये। विडम्बना तो यह है कि जॉनी वाकर जिस विक्टोरिया की ऊँची सीट पर बैठ कर अलमस्त होकर वह गाना गा रहा है ‘ऐ दिल मुश्किल है जीना यहाँ, ये है बम्बई, ये है बम्बई, ये है बम्बई मेरी जान’ विक्टोरिया की वह सवारी भी चलन से बाहर हो गयी। इन विक्टोरिया सवारियों के सैकडों घोडों को कभी मैं बम्बई सेंट्रल के पास एक विशाल अस्तबल में देखा करता था। आज वहाँ ऊँची-ऊँची इमारतें हैं। चावल का एक और दाना : एक ऐसी टिप्पणी जिसकी एक कौंध में मुम्बइया माफियाओं के इरादे, इतिहास और जीवन की पूरी झलक आपको मिल जाए।
धारावी- शहर के भीतर एक शहर
वह एक बस्ती है। कल वह रहेगी नहीं। शहर के बीचोंबीच स्थित धारावी नाम की इस एक सदी से भी ज़्यादा पुरानी बस्ती पर पिछले एक दशक से अब राजनीतिज्ञों, बिल्डरों, टाउन प्लानरों, विकास-विशेषज्ञों और भारी पूँजी निवेशकों की आँखें गड़ी हुई हैं। वे दबी-कुचली, धूल–मिट्टी में सनी मेहनतकश गरीब जनता को वहाँ से उखाड़ फेंकना चाहते हैं और इस खाली की् जाने वाली ज़मीन पर धनिक वर्ग के लिये भव्य गगनचुम्बी इमारतें, अत्याधुनिक शॉपिंग मॉल, विशाल पार्क, कल्ब और जगमागाते ऑफिस कॉम्पलेक्स खड़े करने के इरादे बन रहे हैं। समाज के इस सबसे निचले तबके को विकास के सब्ज़–बाग दिखाये जा रहे हैं कि हम तुम्हें तुम्हारे झोंपड़ों और टीन– टप्परों से निकाल कर उनकी जगह यहाँ बनने वाली ऊँची इमारतों में दो–ढाई सौ वर्ग फीट के फ्लैट देंगे। उनमें बिजली, पानी और शौचालय की सुविधा होगी। इस तरह तुम्हारा रहन – सहन आधुनिक हो जायेगा। असल मकसद तो यह है कि किसी तरह उस विशाल भू-भाग को खाली कराया जाये। 90 के दशक में खुली अर्थ व्यवस्था के साथ जो भारी मात्रा में विदेशी पूँजी निवेश हुआ है, उसने मुम्बई में आज ज़मीन की कीमतों को दुनिया में सबसे ज़्यादा महँगा बना दिया है। पूँजी निवेशकों के लिये धारावी भविष्य का एक मिथक है, मेगा प्रोजेक्ट है, सोने की खदान है। लेकिन आज यह एशिया की सबसे बडी़ झोपड़-पट्टी है।
साहित्य के अलावा फ़िल्मी दरियाओं में भी तैरती उनकी चिंताएँ, तिलमिलाहटें कबीले तारीफ हैं।
जब संगीत ने स्त्रियों को चारदीवारी से आज़ादी दिलायी :
फिल्म ‘साहिब, बीवी और गुलाम’ का एक दृश्य- छोटी बहू उस रात भाँय-भाँय करती उस बड़ी-सी हवेली में सूनी दीवारों, आँसुओं और अपनी घुटन को एक तरफ रख हठात अपने अय्याश पति का रास्ता रोक लेती है। पति परमेश्वर मदहोशी में रोज की तरह जाम छलकाते हुए पतुरिया का नाच देखने को निकलने ही वाले हैं। स्त्री उद्विग्न है। वह उसके दंभ को ललकारती है। पति से अपने होने का अर्थ पूछती है। कहती है, मुझे भी अपने हरम में रख लो और मेरा नाम बदल दो। यह उस औरत की अपने वजूद पर एक बहस थी। अपार अन्तर्वेदना से भरी हुई हवेली की वह छोटी बहू पीती है, लड़खड़ाती है। एक औरत की यंत्रणा, तिरस्कार, बेबसी और चीख में डूबा वह बेहद दर्दनाक गीत उभरता है– ‘न जाओ सैंया, छुड़ा के बैंया, कसम तुम्हारी मैं रो पड़ूँगी।’ 1962 में गुरुदत्त ने विमल मित्र के उपन्यास के जिस दृश्य को अपने सिनेमा के पर्दे पर रचा था, वह सौ साल पहले के एक चरमराते हुए सामन्ती ढाँचे और उस स्वाभिमानी औरत के अपने होने की कशमकश की मार्मिक कथा थी।
दूसरों को आगे बढ़ाने में तत्पर विजय जी अपने प्रति खासे निस्संग, निरपेक्ष-से रहते हैं। चाहे फिल्म हो, साहित्य हो, कला हो, संगीत हो, राजनीति हो, उनका शगल है गहरे पानी में गोता लगाना और चुन-चुन कर मोतियों को बाहर लाना। जाने कितनी बार उन्होंने मुझे कालातीत रोमन कलाकारों से लेकर आधुनिक युग के चार्ली चैपलिन तक संघर्षरत असाधारण शख्सियतों के बारे में टिप्पणी लिख कर भेजी इस आशय से कि मैं उन्हें फेसबुक पर डाल दूँ। कई बार मैंने डाली भी। उनका पुण्य रहा अपने खाते में। ‘पहल’ विजय जी की प्रिय पत्रिका थी, जिसके अफ़्रीकी साहित्य, पाकिस्तानी शायर अफ़ज़ाल अहमद सैयद पर केंद्रित अंक, जर्मन विचारक वाल्टर बेंजामिन, फिलिस्तीनी विचारक एडवर्ड सईद पर केंद्रित अंकों का अतिथि सम्पादन उन्होंने किया जो बेहद चर्चित और प्रशंसित रहे। 1998 में ‘उद्भावना’ पत्रिका के 'सदी के अंत में कविता' अंक के भी विजय जी अतिथि सम्पादक रहे।
शुरुआती दौर में ही साठोत्तर कविता को समझने का प्रयास करते हुए उन्होंने एक किताब लिखी थी: ''साठोत्तर कविता : परिवर्तित दिशाएं''। इस किताब के प्रकाशन में आने के बाद उनके आलोचना कर्म की बहुत सराहना हुई। यह उनकी आलोचना की पहली किताब थी, जिसने आते ही आलोचना जगत के लोगों का ध्यान खींचा। इस किताब ने आलोचना में उनकी जगह निर्मित की। उनके पाठ के केंद्र में प्रमुखत: आठवें दशक के कवि थे, जिनमें अनेक उनके समकालीन भी थे। विजय जी बड़ी खूबसूरती से अपने समय की कविता के अंत:करण में जाकर मर्म की खोज करते हैं। अब वे दो शिखरों पर खड़े थे और उनको लेकर सवाल उठ रहे थे कि वे कवि ज्यादा हैं या आलोचक। 2006 में प्रकाशित कविता संग्रह ''रात पाली'' को भी बेहद सफलता मिली। महानगर की भागमभाग और पराजित समय के शुभ-अशुभ को अपनी खोजी निगाह से देखती विजय कुमार की इन कविताओं से महानगरीय जीवन के भरी दोपहरी के अँधेरे बड़ी शिद्दत से दिखाई देते हैं ।
'कविता की संगत' के बाद ‘कविता के पते-ठिकाने’ उनकी 2012 में आयी नयी पुस्तक है, जिसका अप्रतिम गद्य राजेश जोशी, अरुण कमल व मंगलेश डबराल से टक्कर लेता है, जो कविता की तमाम तहों में जाकर कविता की परख-पड़ताल करता है। विजय कुमार कविता को सामाजिक उपयोगिता और कलात्मक उच्चादर्शों के धरातल पर भी देखते-समझते हैं।
विजय कुमार इस पुस्तक के प्रारंभ में ही वानगाग की एक पंक्ति उद्धृत करते हैं : Exaggerate the essential, leave the obvious vogue. शायद यही वह सीख है, यही जो वे वानगाग से लेते मालूम पड़ते हैं। विश्व कवियों पर भी उनकी कई पुस्तकें हैं पर यहाँ मैं उनका जिक्र नहीं कर रही हूँ।
विजय जी के साथ समय बीतता नहीं उड़ता है। विजय कुमार अपने आप में एक विचार हैं, एक कलाकृति हैं, एक पेंटिंग हैं। उनके पास एक युग दृष्टि, यथार्थ दृष्टि और इतिहास दृष्टि है, जो इन आलेखों में परिलक्षित होती है। 2013 से लेकर 2018 तक चलता रहा उनका यह स्तम्भ। कुल ९९ आलेख निकले नवभारत टाइम्स में जहाँ वे इतिहास के साथ लोकचेतना को जोड़ कर देखते हैं। जहाँ वह सबकुछ उनकी रडार पर है, जो जनविरोधी, मानव-विरोधी, स्मृति-विरोधी, संस्कृति-विरोधी, न्याय और समानता विरोधी है। जहाँ लोक और इतिहास से विस्थापित मनुष्य की पीड़ा हाहाकार मचा रही है। उनका रचना समय हमारे समय और समाज का एक दहकता-जलता हुआ समय है। अपनी पुस्तक 'अँधेरे समय में विचार’ में विजय जी वाल्टर बेंजामिन, थियोडोर एडोर्नो, हैबरमास, लुई अलथुसे, टेरी ईगलटन, फ़्रेडरिक जेमसन, मिशेल फूको, जॉक देरिदा, एडवर्ड सईद, सूजन सोंटैग, जूलिया क्रिस्तेवा, मिखाईल बाख़्तिन और ज़्याँ बोद्रिला सरीखे दार्शनिकों के जीवन, उनके विचार और सरोकारों से हमें रूबरू कराते हैं, जिन्होंने अपने चारों ओर तेज़ी से बदलती हुई दुनिया की पड़ताल की, उन ऐतिहासिक प्रक्रियाओं को समझने की कोशिश की, जो परिवर्तन की इस पूरी परिघटना को दिशा दे रही थीं। विचारों से भरी यह बेमिसाल किताब एक खिड़की की तरह पाठकों को इतिहास, चिंतन, विचार और दर्शन के संसार की झलक दिखा उनके लिए एक बड़ी दुनिया में घुसने का प्रवेश द्वार बनती हैं, जहाँ से वह विचारों के गहरे पानी में गोता लगाता है और अपनी विचार-यात्रा की शुरुआत करता है। विजय कुमार के शब्दों में कहें तो ‘इन विचारकों की ओर आज एक ऐसे समय में देखना दिलचस्प है, जब राष्ट्रीय प्रभुसत्ताएँ कमजोर पड़ गई हैं; जब वित्त, समाजशास्त्र, विज्ञान, राजनीति, संस्कृति, कला, संचार और सम्प्रेषण आदि के क्षेत्र में कितना कुछ बदल गया है और निरंतर बदलता जा रहा है।’
विश्व साहित्य के अनुवाद के साथ ही साथ विजय जी ने कई विश्वविख्यात कवियों पर भी कलम चलाई। अभी जो नाम ध्यान आ रहे हैं, उनमें जीबनयु हर्बर, चेस्वावओ मनोसु, डैरिक वालकॉट, ओक्टोयो पॉज़, यहूदा आमीखाई, मेहमूद दरवेश, अफजाल अहमद, एटालो कल्वीनो आदि हैं। विदेशी भूमि पर विचरण करने वाले विजय जी ने विदेशी कवयित्रियों पर भी बहुत लिखा है। पौलेंड में जन्मी नोबल पुरस्कार विजेता शिम्बोर्स्का उनकी सबसे अज़ीज हैं। गदगदायमान हो विजय जी मुझे उनके बारे में बताते रहते। उनसे जब एक बार पूछा गया- आपकी इतनी कम रचनाएँ प्रकाशित क्यों है? (लगभग ३५० कविताएँ)। इस पर शिम्बोर्स्का का जवाब था- क्योंकि मेरे घर में एक डस्टबिन है। ऐसे समय वे हमारे वालों पर चुटकियाँ लेने से भी नहीं चूकते। हमारे यहाँ देखिये ऐसी-ऐसी मुर्गियाँ हैं, जो हर महीनें अंडा देती हैं।
लेखकीय निष्ठाओं के अंतिम छोर पर खड़ी कुछ लेखिकाएँ उन्हें चैन से सोने नहीं देती थीं। उन्हीं में एक हैं अन्ना आख्मातोव (1889-1966)। एकबार विजय जी ने मुझे व्हाट्स अप्प पर भेजा उनका यह उद्धरण- "यह एक ऐसा समय था, जब केवल मृतक मुस्कराते थे और वे अपने सुकून से भरपूर थे" बीसवीं सदी की महान रूसी कवयित्री। निर्भीक स्वर के लिए स्तालिन की तानाशाही के दौरान नज़रबन्द और 1922 से 1946 तक उनके लेखन पर पाबंदी लगी रही पर वे हारीं नहीं। लिखती रहीं।
एकबार मुझे किसी बेविनार में स्त्री विमर्श पर बोलना था। भारतीय परिप्रेक्ष्य में मेरी जानकारी थी जिसे विजय जी ने और भी दुरस्त किया। लेकिन वैश्विक परिप्रेक्ष्य पर मेरी जानकारी शून्य बटा सन्नाटा थी, ऐसे में विजय जी ने फिर उबारा मुझे। उन्होंने तुरंत मुझे भेजा १८वीं सदी की ग्रेमन डि स्टेल (1766 -1817) के बारे में बताया, जिसे पश्चिम आधुनिकता में स्त्री विमर्श की जननी कहा जा सकता है। वह फ्रांसीसी क्रांति के समय नेपोलियन के साथ थी। फिर भी बाद में अपने बागी तेवर और विचारों के चलते उसे तमाम तरह की यातनाएँ सहनी पड़ीं और नेपोलियन का कोप-भाजन बनना पड़ा। उसे पेरिस से निर्वासित कर दिया गया।
विजय जी के साथ रहना साहित्य, कला, संस्कृति, इतिहास और सुन्दर मानवीय भावनाओं और विचारों के साथ रहना है। अक्सर मेरा मैं उन जैसे विराट व्यक्तित्व के सामने छोटा पड़ जाता है। यह उनका बड़प्पन ही है कि मुझ जैसे गोबर गणेश के साथ भी वे बिना किसी झुँझलाहट के बराबरी के स्तर पर संवाद कर लेते हैं। वे चलता-फिरता ज्ञानकोष हैं। उन्हें विद्वानों के साथ विमर्श करने में, साहित्य, काव्य और समकालीन और विश्व राजनीति पर बहस करना बहुत प्रिय है। विजय जी के चलते ही मुझे पहली बार मुंबई स्थित अपने घर में एक संगोष्ठी करने का सौभाग्य मिला जिसमें राजेश जोशी, विनोद दास और अनूप सेठी, जयश्री सिंह भी शामिल थीं। आज भी उस गोष्ठी की याद ताजा है। राजेश जी ने सचमुच उस दिन बतकही की अमृत धारा छोड़ी थी। एक बार उन्हीं के प्रयासों के चलते हमारी एक बेहद यादगार गोष्ठी हुई चांदिवली के ठाकुर विलेज में, जिसमें सुप्रसिद्ध कवि और आलोचक नरेंद्र मोहन जी भी थे (जिनकी अभी कुछ महीनों पूर्व कोरोना काल में मृत्यु हो गयी।) उस गोष्ठी में अग्निशेखर, अनूप सेठी और जयश्री सिंह जी भी थीं।
नए समय, समाज और संसार के निर्माण के लिए निरंतर बेचैन उनकी आत्मा में इन दिनों सत्ता की क्रूरता, जन-विरोधी नीतियाँ, आम आदमी की बढ़ती तकलीफ, गोदी मीडिया का सरकारी भोंपू बनना और लोकतंत्र के दमन ने एक गहरी निराशा और अवसाद भर दिया है, जो हवा, पानी और धूल की तरह उनकी शख्सियत में घुल मिल गया है। कई बार यह निराशा उनके स्वरों से फूट पड़ती है, जब वे एकाएक शबनम से शोला बन जाते हैं। मैंने उनकी यह गहन निराशा तब भी देखी थी, जब 2019 के लोक सभा चुनाव के नतीजे निकले थे। वे इतने मायूस और हताश थे कि उस कीचड़ में साँस भी नहीं ले पा रहे थे वे। जैसे लोकतंत्र की हानि नहीं उनकी व्यक्तिगत हानि हुई हो।
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एक शाम विजय जी ने हम सबको, मैं, सुधा जी, विनोद दास जी, ओमा शर्मा जी, अनूप सेठी जी को पृथ्वी थिएटर में आमंत्रित किया। यहाँ हम व्हील चेयर पर मिले- शशि कपूर से जो उपस्थित होते हुए भी अनुपस्थित थे, मौन थे और अपनी सूनी-सूनी उदास आँखों से ताक रहे थे। अपने विगत, अपनी कामयाबियों, अपनी शोहरत, अपनी स्मृतियों-- सबसे अब दूर जा चुके थे वे। विजय जी के तीर हमेशा ही प्रत्यन्चा पर चढ़े रहते हैं। उस शाम भी बहुत ही उदास भाषा में लिखा था उन्होंने- उस दिन जब हम उस मूक व्यक्ति के साथ थे, तब बाहर सूरज डूब रहा था। हमने शाम को उतरते देखा, क्या इसी को अकेला हो जाना कहते हैं।
अपने समय को पढ़ते, समझते, अनुभव करते विजय जी समय के साथ इस कदर एकात्म हो जाते हैं कि समय ही हो जाते हैं। ऐसे में जब मित्रों को पूर्णिमा के चाँद पर मुग्ध और रीझते देखते है विजय जी तो उनके ओठ विद्रूपता से भर उठते हैं। जम्मू और कश्मीर में हिंसक वारदातें हो रही हैं, लखीमपुर खीरी लहूलुहान है और हमारे लेखकों को शरद का चाँद रिझा रहा है। काश कोई मुक्तिबोध की तरह ही कह देता कि चाँद का मुँह टेढ़ा है।
कलाकार की परदुख कातरता पायी है विजय जी ने। कब किसके लिए वे गुमसुम हो दुःख में डूब जाएँ, कोई नहीं कह सकता। कुछ दिन पहले मिला मुझे उनका मैसेज, मधु जी, आज मैं अपने समय की प्रसिद्ध अभिनेत्री कुमकुम की यादों में खोया रहा। उस पर 1960 में फिल्माया वह अविस्मरणीय गीत यू ट्यूब पर देखा- ‘मुझको इस रात की तन्हाई में आवाज़ न दो।’ बिहार में जेबुन्निसा के नाम से जन्मी कुमकुम उस तरह का व्यक्तित्व था, जो ताउम्र हाशिये पर रहा करता है। अभी पिछले वर्ष 86 वर्ष की आयु में वह गुज़र गईं। किसी ने उसका नोटिस भी नहीं लिया। मन एक अजीब-सी भावदशा में घिरा रहा।
यारों के यार विजय जी अपने समकालीन कवियों की मुक्त कंठ से सराहना करते नहीं थकते। अभी १ नवम्बर को हमारे समय के सर्वप्रिय कवि नरेश सक्ससेना को ‘परिवार’ संस्था की तरफ से ‘परिवार पुरस्कार’ से जब नवाजा गया तो विजय जी ने अपने वक्तव्य में कहा- बेचैनी पैदा करने वाली नरेश जी कविता पढ़ते-पढ़ते उन्हें अपने समय के नामचीन फिल्मकार आंद्रे तारकोव्स्की की फिल्म याद आ जाती है। अपने समय को छवियों में संबद्ध कर देती हैं उनकी कविताएँ। निःस्सन्देह एक बड़ा इंसान ही अपने समकालीन के लिए ऐसा कह सकता है।